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अब काहे की शरम बबुआ?

Written By Unknown on Friday, February 14, 2014 | 12:48 PM


Friday February 14, 2014
क्या वक्त आ गया है? लोग न जाने क्या-क्या, न जाने कहां-कहां इस्तेमाल करने लगे हैं। बहुत पहले ऊपी के एक डीआईजी साहब थे, जिन्होंने औरतों जैसे कपड़े पहन कर दुल्हन जैसा श्रृंगार कर राधा रूप धारण कर लिया था, कृष्ण को समर्पित हो गए थे। अब वह उनके ईश्वर को पुरुष रूप मानते हों और समर्पण के लिए यही रूप उनको आत्मसंतोष प्रदान करे तो यह उनका व्यक्तिगत मामला माना जा सकता है। जब तक वह पुलिस की नौकरी करते रहे तब तक नौकरी करने को कभी स्त्री वेश में न आए। कम से कम नौकरी का अनुशासन तो वे मानते रहे।

कभी-कभी संकटकाल में ऐसी घटनाएं भी देखने को मिलीं कि अपनी काल्पनिक हत्या के भय से धरने के बीच से संत जी औरतों के कपड़े पहन कर निकल लिए। इस घटना को देश के लोगों को पचाने में संत जी की फार्मेसी में निर्मित चूरण-चटनी तक सहायक सिद्ध नहीं हो सके। अभी तक वह लोगों के पेट गुड़गुड़ा रही है। मनुष्य के मस्तिष्क की बनावट ऐसी है कि उसमें जो भी फालतू मेमोरी फाइलें इकट्ठी होती रहती हैं उन्हें वह कम्प्रेस कर एक फालतू फोल्डर में डालता रहता है। पर ऊपी विधानसभा में हुई फ्री-स्टाइल कुश्ती आज तक भी लोगों के मस्तिष्क के फालतू फोल्डर में नहीं जा पाया है। कोई न कोई घटना ऐसी हो ही जाती है जिससे वह निकल कर सामने आ जाता है। पर ऊपी की बात और है। वहां राजनीति में कुश्ती वाले पहलवानों की राजनीति में कमी नहीं है। उनका विधानसभा में पहुंच जाना और वहां कुश्ती के दांव आजमाना अजूबा नहीं हो सकता।

यूं तो देश में मर्दों और औरतों के बीच की लकीर इतनी गहरी खिंची हुई है कि अभी भी क्लीनशेव्ड पुरुष को नामुच्छा कहने की लोगों की आदत बरकरार है। मर्दों की छाती के बाल भी अक्सर मुहावरों की शक्ल में ही सही मर्दानगी के महत्व को यदा कदा स्मरण कराते रहते हैं। मर्दों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने की ख्वाहिश इतनी गहरी है कि वे अपने लिए डीओ और खुशबुएं तक अलग-अलग इस्तेमाल करते हैं। गलती से भी स्त्रियों के इस्तेमाल करने वाली खुशबू का उपयोग नहीं करते। कहीं कोई कह न दे कि ‘क्या औरतों वाली खुशबू यूज करता है’। फिर यह खबर पीएमपीओ की तरह होती है, जो गुपचुप नहीं, धड़ाके के साथ प्रचारित होती है कि फलां फलां औरतों वाली खुशबू यूज करता है। एक साधारण पुरुष फिर भी औरतों वाली खुशबू का प्रयोग करने की गलती कर सकता है। लेकिन सार्वजनिक जीवन जीने वाला कोई भी पुरुष ऐसी गलती नहीं कर सकता। और बात यदि नेताओं, विधायकों और सांसदों की हो तो ऐसा करने की कोई संभावना कभी नहीं होती।

तिस पर कल जो देखने को मिला उससे देश को, खास तौर पर देश के पुरुषों को बहुत शर्मिन्दगी उठानी पड़ी। कई पुरुष तो दोपहर में खबर मिलने के बाद से अब तक अपना सिर तक शर्म के मारे ऊंचा तक नहीं कर पा रहे हैं। भला अब ये भी कोई बात हुई, जिस चीज को औरतों के लिए बनाया गया हो उसका इस्तेमाल पुरुष करें, पुरुषों में भी कोई सांसद करे। करे तो करे, फिर प्रेस-मीडिया को जाकर बताए भी कि मैं तो इसे इस्तेमाल करने के लिए हमेशा अपने साथ रखता हूं। अभी दो हफ्ते पहले मैं काली मिर्च पाउडर खरीदने बाजार गया तो पता लगा वह दुगना महंगा हो गया है। तब मेरी समझ में ही नहीं आया था कि आखिर काली मिर्च पाउडर इत्ता महंगा क्यों हो चला? पहले तो सोचा कि आजकल बहुत औरतें-लड़कियां इसे लेकर साथ चलने लगीं है। पर असली रहस्य तो कल प्रकट हुआ कि इसे महंगा बनाने का असल श्रेय तो सांसदों को है।

आखिर एक सांसद ने देश को शर्मसार कर ही दिया। पर इसलिए नहीं कि उसके कारण सांसद अपने-अपने चेहरे कपड़ों से छुपा कर संसद भवन के बाहर भागे। कुछेक अस्पताल भी पहुंचे और कोई तो बेहोश भी हो गया। बल्कि देश इस कारण शर्मसारी का कारण एक पुरुष सांसद द्वारा इस्तेमाल की वह चीज थी, जिसे खास तौर पर औरतों की जरूरत के लिए बनाया गया था।


आज सुबह का अखबार दो विरोधाभासी खबरें लेकर आया है। एक तरफ सांसद को औरतों वाला आत्मरक्षक हथियार उपयोग करने में कोई शर्म नहीं आई। वहीं राजधानी के एक दूसरे सदन के कुछ विधायक अपने ही सदन के दूसरे साथियों को चूड़ियां पहनाने को आतुर नजर आए। वे चूड़ियां साथ लिए सदन के अन्दर पहुंच गए। जब उन्हें वांछित लोगों को पहनाने में कामयाब नहीं हुए तो उनके आगे फेंक कर, खुद ही पहन लो कह कर काम चला लिया। गनीमत है कि चूड़ियां कांच की न हो कर स्टील वाली थीं। वर्ना एक भी पहनने को साबुत नहीं बचती। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे समाज के मूल्य क्या थे और क्या हो गए हैं? और अब क्या होने वाले हैं? जब स्त्रियों के उपयोग की वस्तुएं उपयोग करना मर्दों की जरूरत बन गई हो तो फिर किसी पुरुष को चूड़ियां पहना भी दी जाएं तो भी काहे की शर्म बबुआ?
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